कमसिन बच्चों को मस्जिद में लाना कैसा है ?

nasamaj bacchon ka masjid mein aana

ज़्यादा छोटे ना समझ कमसिन बच्चों का मस्जिद में आना या उन्हें लाना शरअन ना पसंदीदा नाजायज़ और मकरूह है। कुछ लोग औलाद से बेजा मोहब्बत करने वाले, नमाज़ के लिए मस्जिद में आते हैं तो अपने साथ कमसिन नासमझ बच्चों को भी लाते हैं, यहां तक के बाअज़ लोग उन्हें अगली सफ़हो में अपने बराबर नमाज़ में खड़ा कर लेते हैं, यह तो निहायत ग़लत बात है, और उससे पिछली सफ़हो के सारे नमाज़ियों की नमाज़ मकरूह होती है, और उसका गुनाह उस लाने और बराबर में खड़ा करने वाले पर है, और उन पर जो उससे हत्तल मक़दूर मना ना करें। हां जो समझदार होशियार बच्चे जो नमाज़ के आदाब से वाकिफ़, पाकी और नापाकी को जानते हो उनको आना चाहिए, और उनकी सफ़ मस्जिद में बालिग़ मर्दों से पीछे होना चाहिए, और ज़्यादा छोटे बच्चे जो नमाज़ को भी एक तरह का खेल समझते, और मस्जिद में शोर मचाते खुद भी नहीं पढ़ते और दूसरों की नमाज़ भी खराब करते हैं, ऐसे बच्चों को सख़्ती के साथ मस्जिद में आने से रोकना ज़रूरी है। “हदीस में है रसूले करीम सल्लल्लाहो ताला वसल्लम ने फरमाया

جنبوا مساجدكم صبيانكم ومجانينكم وشراءكم وبيعكم وخصوماتكم ورفع اصواتكم الاخ الحديث

तर्जुमा अपनी मस्जिदों को बचाओ बच्चों से, पागलों से, खरीदने और बेचने से, और झगड़े करने से, और ज़ोर-ज़ोर से बोलने से

📖 (इब्ने माजा, बाब मा यकरहू फिलमसाजिद, सफ़्हा 55)

यानी यह सब बातें मस्जिद में नाजायज़ और गुनाह है। सदरूश्शरीआह हज़रत मौलाना अमजद अली साहब आज़मी रहमतुल्लाहि तआला अलैहि लिखते हैं बच्चे और पागल को, जिनसे नजासत का गुमान हो मस्जिद में ले जाना हराम है वरना मकरूह है

📖 (बहारे शरीअत, हिस्सा 3, सफ़्हा 182)

कुछ लोग कहते हैं कि बच्चे मस्जिद में नहीं आएंगे तो नमाज़ सीखेंगे कैसे तो भाइयों समझदार बच्चों के सीखने के लिए मस्जिद है,, और नासमझ ज़्यादा छोटे बच्चों के लिए घर और मदरसे हैं, और हदीसे रसूल (सल्लल्लाहो ताला अलेही वसल्लम) के आगे अपनी नहीं चलाना चाहिए

📚 (ग़लत फेहमियां और उनकी इस्लाह, सफ़्हा . 49)

🏻 अज़ क़लम 🌹 खाकसार ना चीज़ मोहम्मद शफीक़ रज़ा रिज़वी खतीब इमाम (सुन्नी मस्जिद हज़रत मनसूर शाह रहमतुल्लाह अलैह बस स्टॉप किशनपुर अल हिंद)